कोरबा :-

पिछले दिनों नगर पालिका निगम कोरबा में सभापति चुनाव में बीजेपी के आधिकारिक प्रत्याशी हितानंद अग्रवाल की हार और नूतन सिंह की अप्रत्याशित जीत ने एक ओर जहाँ राजनितिक गलियारी मे हड़कंप मचा दिया वहीँ यह चुनाव बीजेपी के अंदर गहरे मतभेदों को भी उजागर कर दिया है। इस घटनाक्रम के बाद जहां कांग्रेस को अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक लाभ मिलने की संभावना है, वहीं बीजेपी के भीतर स्थानीय बनाम बाहरी नेतृत्व को लेकर उठे विवाद ने पार्टी संगठन को असहज कर दिया है। सभापति चुनाव में बीजेपी के कई पार्षदों ने पार्टी नेतृत्व के फैसले के खिलाफ जाकर नूतन सिंह को वोट दिया, जबकि अधिकृत प्रत्याशी हितानंद अग्रवाल को अपेक्षित समर्थन नहीं मिल सका। इससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि कोरबा में बीजेपी का स्थानीय नेतृत्व अब स्थानीय न होकर बाहरी हो गया है।

कैसे पनपा असंतोष ?

1. पर्यवेक्षक की उपेक्षा: चुनाव के लिए रायपुर उत्तर के विधायक पुरंदर मिश्रा को पर्यवेक्षक बनाकर कोरबा भेजा गया, लेकिन उन्होंने स्थानीय पार्षदों की राय को नजरअंदाज कर हितानंद अग्रवाल को प्रत्याशी घोषित किया।

2. हितानंद अग्रवाल की स्वीकार्यता पर सवाल: पार्षदों ने उनका विरोध इसलिए किया क्योंकि उन पर कांग्रेस के जयसिंह अग्रवाल के करीबी होने और भीतरघात के आरोप लगे थे।

3. बीजेपी के अंदर ध्रुवीकरण: पार्टी के ही एक वर्ग पर आरोप लग रहा है कि वे कोरबा में बढ़ते छत्तीसगढ़िया नेतृत्व को कमजोर करना चाहते हैं, जिससे कांग्रेस के जयसिंह अग्रवाल को लाभ मिल सकता है।

4. मंत्री लखनलाल देवांगन को निशाना बनाने की रणनीति: इस घटनाक्रम के बहाने पार्टी के भीतर ही कुछ लोग उद्योग मंत्री लखनलाल देवांगन की स्थिति कमजोर करने की कर रहे हैं कोशिश।

आगे क्या ?

अब गौरीशंकर अग्रवाल को इस पूरे प्रकरण की जांच का जिम्मा सौंपा गया है। अब सवाल यह है कि बीजेपी इस असंतोष को कैसे संभालेगी ? क्या स्थानीय कार्यकर्ताओं की अनदेखी जारी रहेगी, या फिर नेतृत्व इस असंतोष से सबक लेकर कोरबा में भाजपा अपनी रणनीति बदलेगा ? आने वाले दिनों में इस राजनीतिक घटनाक्रम के असर से बीजेपी और कांग्रेस, दोनों की स्थिति स्पष्ट होगी।